ज़िंदगी की रफ़्तार और खोता बचपन"
आज की इस दौड़ती-भागती ज़िंदगी में हमने बहुत कुछ पाया है — तरक्की, पैसा, शोहरत… लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस रफ़्तार में हमने क्या खो दिया?
कभी सुबह की ठंडी धूप में बैठकर मम्मी के हाथ की गरम चाय पीना क्या अब भी वैसा ही लगता है?
क्या वो बेफिक्री से पतंग उड़ाने वाले दिन, बिना घड़ी देखे खेलने वाले पल, अब भी हमारे हिस्से में आते हैं?
हम बड़े तो हो गए, लेकिन बचपन वहीं पीछे रह गया — उस पुराने आंगन में, उन धूलभरे गलियों में, जहाँ से हमारी असली पहचान शुरू हुई थी।
आज मोबाइल है, इंटरनेट है, लेकिन वो प्यार, वो अपनापन, वो मासूम हँसी कहाँ है?
अब रिश्तों में टाइम होता है, दिल नहीं। दोस्त ऑनलाइन मिलते हैं, साथ बैठकर हँसने वाले नहीं।
प्यार emoji में सिमट गया है, और बातें typing sound में।
क्या वाकई हमने तरक्की की है?
या सिर्फ दिखावे की दुनिया में खुद को खो दिया है?
इस आर्टिकल को पढ़ते समय अगर आपके दिल में भी अपने पुराने दिनों की कोई याद ताज़ा हो गई हो…
तो एक बार अपने किसी पुराने दोस्त को कॉल करिए,
माँ के साथ बैठिए,
पापा से एक बात बिना जल्दी में करिए।
क्योंकि ज़िंदगी बड़ी नहीं, सच्ची होनी चाहिए।